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गीत 2 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

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साँझ! कुचल कर
चली गई कल तन की इच्छाओं को तब से-
मीन सरीखा एकाकी मन उसकी ख़ातिर तड़प रहा है।
वो तो पास नहीं है लेकिन नयन उसी को ढूँढ रहे हैं।
उसके दूर चले जाने पर हमने गहरे घाव सहे हैं।
हे अँधियारों! जाकर कह दो उस से भोले मन की पीड़ा-
कहना एक ग़ज़ल की ख़ातिर उसका शाइर तड़प रहा है।
मीन सरीखा एकाकी मन ...
उसने अपनी सुंदरता का एक मधुर परिचय बतलाया।
और नियति से हाथ मिला कर सरस प्रेम का जाल बिछाया।
हमसे थोड़ा प्रेम जता कर शायद उसको चैन मिला हो-
हमने तो आँसू ही पाया मन भी आख़िर तड़प रहा है।
मीन सरीखा एकाकी मन ...
उसको ऐसा क्यों लगता है चल जाने से मन बदलेगा।
हम क्या बोलें क्या समझाए समय एक दिन सब कह देगा।
उसने अपनी साँसों से जो 'मन' का कोमल तन छूआ है-
इसीलिए इक प्रेम नगर का नया मुसाफ़िर तड़प रहा है।
मीन सरीखा एकाकी मन ...