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गीतमयी हो तुम / त्रिलोचन
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गीतमयी हो तुम, मैंने यह गाते गाते
जान लिया, मेरे जीवन की मूक साधना
में खोयी हो । तुम को पथ पर पाते पाते
रह जाता हूँ और अधूरी समाराधना
प्राणों की पीड़ा बन कर नीरव आँखों से
बहने लगती है तब मंजुल मूर्ति तुम्हारी
और निखर उठती है । नयी नयी पाँखों से
जैसे खग-शावक उड़ता है, मन यह, न्यारी
गति लेकर उड़ान भरने लगता वैसे ही
सोते जगते । दूर, दूर तुम दूर सदा हो,
क्षितिज जिस तरह दॄश्यमान था, है, ऎसे ही
बना रहेगा । स्वप्न-योग ही यदा कदा हो ।
चांद व्योम में चुपके चुपके आ जाता है
उत्तरंग होकर विह्वल समुद्र गाता है ।