भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली अरण्यकाण्ड पद 11 से 15/पृष्ठ 1

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(11).
रागसोरठ

जबहि सिय-सुधि सब सुरनि सुनाई |
भए सुनि सजग, बिरहसरि पैरत थके थाह-सी पाई ||

कसि तूनीर-तीर धनु-धर-धुर धीर बीर दोउ भाई |
पञ्चबटी-गोदहि प्रनाम करि, कुटी दाहिनी लाई ||

चले बूझत बन-बेलि-बिटप, खग-मृग, अलि-अवलि सुहाई |
प्रभुकी दसा सो समौ कहिबेको कबि उर आह न आई ||

रटनि अकनि पहिचानि गीध फिरे करुनामय रघुराई |
तुलसी रामहि प्रिया बिसरि गई, सुमिरि सनेह-सगाई ||