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गीला माल? / असंगघोष

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रंग-बिरंगे फूलों से लबरेज
अफ़ीम के इन खेतों की मेढ़ों पर
‘खेत-सड़क के बीच-बची ज़मीन पर’
बसे बाछड़ा<ref>राजस्थान-मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में बसी एक दलित जाति जिसमें औरतें वैश्यावृति करने को अभिशप्त हैं।</ref> डेरों में,
सड़क किनारे
दिन-रात चलते ढाबों के पीछे की
अधबनी कोठरी में
आधी रची-बसी ! स्त्री
सोचती है
खुद के कब और कैसे
असमय कन्या से
स्त्री हो जाने के बारे में।
 
रात के घने अन्धेरे में
कोई खटखटाता है
अधबनी कोठरी की साँकल
ज़ोर से पुकारता हुआ
‘ए कुड़ी कोई ख़ाली है?’
कुड़ी कहाँ से ख़ाली होगी
वह तो कब की चली गई है
बड़े शहरों में
अपनी आजीविका के लिए
बार-बाला बन
नाचने,

जो रह गईं यहीं
उन्हें बसों में आते-जाते,
चढ़ते देख
तुम्हारे लौण्डे
अभी-अभी जिनकी मूँछों की
हल्की-सी रेखाऐं आई है
फुसफुसाते हुए कहते हैं —
‘गुरू ! बस में गीला माल लदा है।’

उसको साफ़ सुनाई देता है,
और उसके फलक पर
बिजली कौंधती है,
क्या वह स्त्री नहीं है !
किसी की पत्नी नहीं है !
उसकी कोई भावना ही नहीं है।
लुच्चों के शब्दों में
वे हैं सिर्फ गीला माल (?)

ऐसे ही कई-कई
प्रश्नों से घिरी-बँधी
मात्र बाँछड़ा स्त्री होने से ही अभिशप्त !
वह आहत मन की गहराई से
चिल्लाती हुई कहती है —
‘‘घर जा
अपनी माँ से पूछ!
कि मैं क्या हूँ?
स्त्री?
पत्नी?
बहन?
बेटी?
या
गीला माल?
जा यह तेरी माँ बताएगी।’’