भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुइयाँ / ऋचा जैन
Kavita Kosh से
गुइयाँ ने पहले पैर निकाले
फिर छोटी-सी मुंडी
सब बोले, 'जू-जू बाबा'
माँ-बाबा बोले, 'हमारी गुइयाँ'
गिरी, गिरी, पर चली
डरी, डरी, पर बोली
धीरे, धीरे, पर समझी
फिर एक दिन गुइयाँ ने एक घंटी सुनी
गुइयाँ भी बस्ता लेके दौड़ी
सब अंदर, गुइयाँ रह गई बाहर
दिनों-दिन, सालों-साल
बस्ते के साथ
अब गुइयाँ 45 की है
रोज दो अलारम लगाती है
बिस्तर पर खड़े हो जन-गण-मन गाती है
बस्ता खोलती है सवालों के साथ
बाँधती है सवालों के साथ