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गुजरात / अरविन्द चतुर्वेद

गुज़र जाए रात
और हाथ में आए
पड़ोसी का हाथ
तो धोकला खाने किसी प्रात
मैं जाऊँ गुजरात।

पोंछकर आँसू अहमदाबाद
फिर से नाचे डांडिया
और ख़ुशियाँ हों आबाद

इंतज़ार है मुझे
कब तक गलेगा यह पहाड़
कब मैं जाऊँगा काठियावाड़
वहाँ खुले हुए हैं
मेरे लिए
किसी के घर के किवाड़।