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गुज़रे कल के बच्चे / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
ये हाशियों पर दर्ज़ चेहरे !
नहीं पराए
मेरे अपने हैं
आकाशगंगा से टूटे
सितारे नहीं
मेरे सपने हैं
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं !
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं
जिन्होंने सँवारा है हमारा आज
बस के टायरों के साथ-साथ भागते
बेचा है अख़बार
उनके सपनों के धागों से
बुनी गईं हैं हमारी सुविधाएँ
हमारे जूतों के नीचे बिछा कालीन
उनकी मासूम उँगलियों के खून की
रंगत से रंगा है ।
उनके सपनों का कोई इतिहास नहीं
उनके पसीने का कोई दस्तावेज़ नहीं
वे हाशिओं में दर्ज़ चेहरे हैं
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं ।
नहीं पराये
मेरे अपने हैं ।
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं।