भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुड़ / राम करन
Kavita Kosh से
चींटी चाट रही थी गुड़,
रस पीती थी सुड़-सुड़-सुड़।
इतना पी, इतना पी वह,
पेट लगा करने गुड़-गुड़।
तब तक निकली तिलचट्टी,
वह भी फूली खाकर गुड़।
हट्टी-कट्टी खूब हुई,
नही सकी पर वापस मुड़।
हवा लगा जब गुड़ को तो,
हुआ चिपचिपा गीला गुड़।
बढ़ा जायका लेकिन तब
चट्टर-पट्टी जैसा गुड़।
मच्छर जी ने देखा जब,
सोंचा - खाएं हम भी गुड़।
जैसे बैठे चिपके पँख,
फिर वे कभी न पाए उड़।