गुफ़्तगू / अली सरदार जाफ़री
गुफ़्तगू बन्द न हो
बात से बात चले
सुब्ह तक शामे-मुलाक़ात चले
हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले
हाँ जो अलफ़ाज़ के हाथों में हैं संगे-दुश्नाम
तंज़ छलकाये तो छलकाया करे ज़हर के जाम
तीखी नज़रें हों तुर्श अबरुए-ख़मदार<ref>तिरछी भवें</ref> रहें
बन पडे़ जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहें
बेबसी हर्फ़ को ज़ंजीर-ब-पा<ref>पैर में ज़ंजीर बाँधना</ref>कर न सके
कोई क़ातिल हो मगर क़त्ले-नवा कर न सके
सुब्ह तक ढल के कोई हर्फ़े-वफ़ा आएगा
इश्क़ आयेगा बसद लग़ज़िशे-पा <ref>पैरों का कम्पन</ref> आएगा
नज़रें झुक जाएँगी, दिल धड़केंगे, लब काँपेंगे
ख़ामुशी बोसः ए-लब बनके महक जाएगी
सिर्फ़ ग़ुंचों के चटकने की सदा आएगी
और फिर हर्फ़ो-नवा की न ज़रूरत होगी
चश्मो-अबरू के इशारों में महब्बत होगी
नफ़रत उठ जायेगी, मेहमान मुरव्वत होगी
हाथ में हाथ लिये सारा जहाँ साथ लिये
तोहफ़ःए-दर्द लिए प्यार की सौग़ात लिये
रहगुज़ारों से अदावत के गुज़र जाएँगे
ख़ूँ के दरयाओं से हम पार उतर जाएँगे
गुफ़्तगू बन्द न हो
बात से बात चले
सुब्ह तक शामे-मुलाक़ात चले
हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले