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गुमशुदगी / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
दिल को संभाले हुए हिम्मत से
यह सियाह ठिगना जिस्म गुमशुदगी में
कुछ बचाके रोज भरता है
फीकी सी मुस्कुराहट
गर्मी हरारत की
और कुछ छुअन कि चंद हाथ तो हैं
गो लड़ना इस तरह बड़ी हिमाकत है
जैसे खांचे में सांस भरता हुआ
जैसे खपरैल से उठता धुंआ मटैला-सा
जैसे जागती टांगों पर नींद में चौकस
जैसे हर तरकीब लड़ने में नाकाफी
एक धनुष हूं बेआवाज अभी शाम हुई
एक उस शंख-सा जो बिल्कुल अभी चुप हुआ
रात के मैदान में हर तरफ दुश्मन
कत्ल के वास्ते पंजों में धार भरते हुए
और मैं कि वक्त की नब्ज पर उंगलियां चटकाता
उसे थाम लेने की जिद में अटका-ठहरा सा
गंध दुश्वारियों की है जिस डगर घूमूं
अपनी जद में कि अपनी नजर के पार
मैं इम्तिहान में हूं, ये रात बड़ी भारी है