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गुलदस्ते में फूल / तरुण भटनागर
Kavita Kosh से
गुलदस्ते में,
मुरझाने से पहले,
चंद घण्टे जीते हैं,
तने से कटे,
एस्टर आैर कारनेशन के फूल।
जैसे छिपकली की पंूछ,
धड से अलग होने के बाद,
फड़फड़ाती है,
बिना सांस आैर धड़कन के।
उनकी उन बातों की तरह,
जो उनसे अलग होकर,
बन गई है एक याद,
अब उसका कोई वास्ता नहीं है,
उनकी सांसों से,
उनके प्राणों से।
उनकी याद ने,
उगा ली है,
अपनी जड़, अपनी सांस ़ ़ ़।
ठीक वैसे ही,
जैसे,
गुलदस्ते में फूल,
सोखते हैं गुलदस्ते का पानी,
नहीं दिखने वाली अपनी जड़ से,
लिये रहते हैं रंगत,
नहीं महसूस होने वाली अपनी सांसों से,
आैर,
बने रहते हैं,
उस समय तक,
जब तक उनकी जरूरत होती है।