गुलबिया / मृदुला सिंह
सुनो स्वीटी!
तुम गुलबिया हो न?
वही जो मिली थी मुझे
साल के हरीले वनों में
तुम्हारी सेमल पात-सी हंसी
गुदगुदाती रही है
मेरे निराश क्षणों को...
कैसे पलक झपकते ही
कूद गई थी
पहाड़ की तराई वाली
ठंडी नदी में
जादूगरनी हो तुम
सोचा था मैंने
फेंटे में बाँध सावन
बीज छीटती हो खेतों में
तो सारी प्रकृति नीली हो जाती है
अपने हिस्से की खुशी
मुट्ठी में बंद किये नापती हो दूरियाँ
मनुष्येतर जगत की
बहते पानी के दर्पण मे
संवारती हो अपनी सुंदरता
गंगा इमली की पायल पहन
जब वासंती-सी नाचती हो
तब पतझड़ी मौसमों की कोख में
खिलते हैं पलाशवन
कटे पेड़ों की ठूंठ को
छाती से लगाकर पी लिया करती हो
उनकी पीड़ा
गुलाल-सी उड़ती हो बन में
महुये-सी महकती हो
तुम्हारे आदिम राग से
फूल जाती है धरती की छाती
खिल जाते हैं वनफूल
सुनो! इतना ही कहना है
मत आओ शहर
यहाँ व्यर्थ ही खर्च हो जाओगी
तुम्हारी सहजता को
सोख लेगा सीमेंट का यह जंगल
बचा लो अपना नाम
भरम है गुलबिया से स्वीटी बनना