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गुलाम / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
युद्ध के बाद
बाँध दिया गया था मुझे
ज़ंजीरों से
जैसे गूँथी जाती है चोटी
मैं एक घोड़े पर सवार होकर
उत्तर से आई थी
उपहार बनकर
गुलामों की मण्डी में
मेरे सिले हुए होंठ
कभी नहीं खुले
एक व्यापारी की आवाज़ के साथ
बिखर गई मेरी देह
अजनबियों के हाथों में
मैं इन्तज़ार करती रही
कि मेरा मालिक
मेरी ज़ंजीरें खोले
किसी उजाड़ स्वप्न में
उसकी नज़रें झुकीं
नीचे
ताकि ठीक से देख सके मुझे
पर्दे में ।