गुलेल / संजय अलंग
पेडों पर उछलते कूदते, आमा डगाली खेलते
निगाहें तलाशती रहती
व्ही आकार अंगूठे मोटाई की गोल टहनी
मिलते ही आल्हाद छा जाता
छूट जाते सभी खेल
सावधानी से उसे काटते, छीलते, तराशते
निखारते आकार और देते सुगढ़ता उसे
तलाशते रबर की पुरानी ट्यूब
खंगालते कबाड़, खाक छनते साइकिल दुकानों की
करीने से काटते दो पट्टियाँ ट्यूब से
बराबर आकार की लंबी
निकालते ढ़ेर सारी पतली बंधनी
मोची से बनवाते चमौटी
देखते घिसे और तराशे जाते चमड़े को
निहारते दोनों किनारों पर छेदों का कतरा जाना
आँखों में बेचैनी छटपटाती
मस्तिष्क़ में उत्तेजना
व्ही आकार डंठल पर लंबी पट्टी बैठाते, जमाते
बांधते संभाल-संभाल खींचकर बंधनी
रबर पिरो दोनो सिरों पर बैठाते चमौटी
खींच कर परखते तनाव
आकाश की ओर अनजाने निशाने पर तानते
एक आँख बंद निशाना साध खुली आँख तक खींच लाते
उछलते गोटी हवा में, दन से
इठलाते विजेताओं सा गले में डाल
क्राफ्ट मेले से, सौहार्द के लिए
खरीदते हुए गुलेल, याद आया मुझे