भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गेंदा / अर्पिता राठौर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने
कभी गेंदे का फूल देखा है?
देखा है कि कैसे खिलता है
थोड़ा-थोड़ा…
एक दिन में नहीं लाकर रख देता है
अपने हफ़्तों के किए हुए श्रम को
मेहनत के एक-एक कण को
उभारता है
धीरे-धीरे

इस बीच
गर तुम्हारे सब्र का बाँध टूट जाए
तो घूम आना कुछ देर
गुड़हल के पास
वह ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराता।

जब तक तुम उसे
खिलता-मुरझाता देख आओगे
तब तक गेंदे का ये फूल
इंतज़ार करता रहेगा तुम्हारा
और यूँ ही खिलता रहेगा।