गोपी बिरह(राग गौरी-1) / तुलसीदास
गोपी बिरह(राग गौरी-1)
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मधुप! समुझि देखहु मन माहीं।
प्रेम पियूषरूप उड्डपति बिनु।
कैसे हो अलि! पैयत रबि पाहीं।1।
जद्यपि तुम हित लागि कहत सुनि,
स्त्रवन बचन नहिं हृदयँ समाहीं।
मिलहिं न पावक महँ तुषार कन
जौ खेाजत सत कल्प सिराहीं।2।
तुम कहि रहे , हमहूँ पचि हारीं,
लोचन हठी तजत हठ नाहीं।
तुलसिदास सोइ जतन करहु कछु
बारेक स्याम इहाँ फिरि जाहीं।3।
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मोकेा अब नयन भए रिपु माई!
हरि-बियोग तनु तजेहिं परम सुख,
ए राखहिं सो करि बरिआई।1।
बरू मन कियो बहुत हित मेरो,
बारहिं बार काम दव लाई।
बरषि नीर से तबहिं बुझावहिं
स्वारथ निपुन अधिक चतुराई।2।
ग्यान परसु दै मधुप पठायौ
बिरह बेलि कैसेहु कटि जाई।
सो थाक्यो बरू रह्यो एकटक,
देखत इन की सहज सिंचाई।3।
हारतहूँ न हारि मानत सठ
सखि! सुभाव कुदुक की नाई।
चातक जलज मीनहु ते भेारे,
समुझत नहिं उन की निठुराई।4।
ये हठ निरत दरस लालच बस,
परे जहाँ बल बुधि न बसाई।
तुलसिदास इन्ह पै जो द्रवहिं हरि,
तौ पुनि मिलहिं बैरू बिसराई।5।