ग्यारहवीं ज्योति - कुसुम / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हँस रहे हो क्यों कोमल फूल?
बता दो काँटों पर तुम झूल
मग्न हो क्यों तुम सुधि-बुधि भूल?
चुभोते क्या त्रिशूल नहिं शूल?॥1॥
सुना है भारत के प्राचीन
तपस्वी आराधन में लीन
किया करते थे निज तन क्षीण,
बिछा कर सेज कंटकाकीर्ण॥2॥
उन्हीं के जीवन का अनुकण,
कर रहे हो क्या तुम आमरण?
समझ तप ही जीवन-आभरण
शुद्ध करते हो अन्तःकरण?॥3॥
हुए क्या समाधिस्थ तद्रूप,
यहीं वे त्याग मानवी रूप,
वहीं उनका क्या तपसी रूप
प्रकट करते हो आज अनूप?॥4॥
या नहीं, प्रकृति धार यह वेष,
कह रही रे मानव-जग? देख,
किया करता जिनका उल्लेख,
उन्हें प्रत्यक्ष यहाँ तू देख॥5॥
समय था तेरा भी वह एक,
किये थे जब उत्पन्न अनेक
तपस्वी, धर्मव्रती, सविवेक
प्राण-प्रण से रखते जो टेक॥6॥
किन्तु तेरा यह सारा साज
मिल गया है मिट्टी में आज,
हँस रहा है यह प्राकृतिक समाज
इसी से पुष्पों के मिस आज॥7॥
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कुसुम! यह कोमल सुन्दर गात,
तुम्हारा सहता क्यों दिन-रात
विषम वर्षा, आतप औ’ वात
जगत् के भी निष्ठुर आघात?॥8॥
देख यह वायु तुम्हारे रंग,
सह सकी कब! करती है भंग।
किन्तु फिर भी दे उसका संग
किया करते हो सुरभित अंग॥9॥
देख यह जगत् तुम्हें अम्लान
तोड़ कर करता है अपमान,
किन्तु फिर भी रखकर अभिमान,
उसे देते हो सौरभ-दान॥10॥
सुई से छेद पिरो उर तार,
निर्दयी करता कठिन प्रहार,
किन्तु तुम तो फिर भी सुकुमार,
गले का बन जाते हो हार॥11॥
कुसुम! कोमलता के आगार
कहाँ से सीखा यह व्यवहार?
जगत् को भी सिखला दो प्यार
नहीं भूलेगा यह उपकार॥12॥