ग्रीष्म आगमन / प्रदीप प्रभात
वसंत गेलै, ग्रीष्म के आगमन होलै,
नवजीवन रोॅ आशा पर निराश होलै।
सुनोॅ घोॅर द्वार बाट-डगर लागै छै,
गॉव शहर सिहरै छै गरमी रोॅ आगमन सेॅ।
मन मारलोॅ रंग, हारलोॅ जुआरी रंग,
यै दिनोॅ मेॅ बटोही रोॅ चाल छै।
जीयै रोॅ ललक पियास, सुखलोॅ अरमान आश छै
सात सुरुज उगलोॅ छै बाटोॅ के पर्वत पर।
भांय-भांय उजड़ोॅ दिन लागै छै,
चारोू दिश उदास लागै छै।
बोॅन-बहियारोॅ मेॅ धुईयॉ रंग लागै छै
रौंद सिनी चक-चक नाचै छै।
पहाड़ों सेॅ आगिन निकलै छै,
ऐंगना-द्वारी भंग लोटै छै।
दुपहरिया दिन अशमशान लागै छै,
बॉस-बोॅन सिसकारी पारै छै,
पछिया रोॅ धुक्कड़ होॅ-होॅ चलै छै।
गाछी सेॅ पत्ता गिरै छै,
हर-हर करि केॅ उड़ै छै।
मन रहि-रहि डोलै छै,
चारों दिश उदास लागै छै।
पछिया रोॅ धुक्कड़ होॅ-होॅ चलै छै
उजड़ोॅ-उजड़ोॅ दिन लागै छै।