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ग्रीष्म के स्तूप / पूर्णिमा वर्मन

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झर रही है
ताड़ की इन उँगलियों से धूप
करतलों की
छाँह बैठा
दिन फटकता सूप
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
कोचिया के
सघन हरियल केश
क्यारियों में
फूल के उपदेश
खिलखिलाता दूब का टुकड़ा
दिखाता स्वप्न के दर्पन
सफलता के -
उफनते कूप
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
पारदर्शी याद के
खरगोश
रेत के पार बैठे
ताकते ख़ामोश
ऊपर चढ़ रही बेलें
अलिंदों पर
काटती हैं
द्वार लटकी ऊब
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
चहकते
मन बोल चिड़ियों के
दहकते
गुलमोहर परियों से
रंग रही
प्राचीर पर सोना
लहकती
दोपहर है खूब
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।