घटना-क्रम / प्रतिभा सक्सेना
कुछ अस्त-व्यस्त, चिन्ताकुल-सा लंकापति,
आ खडा होगया मय-तनया के सम्मुख!
"मैंनें जो वचन दिया था, प्रिये, तुम्हें तब,
अब आज तुम्हें देने आया हूँ वह सुख!"
"क्या वचन? नई यह बात! और मैं दुखी कहो किस दुख से?"
पटरानी हूँ, पति की अति प्रिय, फिर वंचित मैं किस सुख से?"
"तुम वंचित रहीं प्रिये, सीता को ले आया हूँ सचमुच!
उसको अशोक-वन में रख कर, कर रहा तुम्हारा प्रिय कुछ!"
विस्मय-विमूढ़ रानी के मन में आशंकायें जागीं-
"वह तो वन में थी, निर्वासन मेंपति का साथ निभाती?"
घटना-क्रम से अवगत कर बोला, "तुम्हीं सम्हालो जाकर!
अति-व्यथित हृदय, करुणा-स्वर से उपवन भरती रो-रो कर!"
"मैं जाऊँ? अभी? अचानक? पहले मन तो स्थिर कर लूं!
आवेगों भरे हुये अंतस् मेंकुछ तो संयम धर लूँ!"
"ओ, लंकापति, क्या कर डाला, बिन आगा-पीछा सोचे?
पति- संरक्षण से हर लाये अपने विवेक को खो के!"
उत्साह भंग हो गया और कुछ उतर गया उसका मुख,
कुछ बोल न पाया रानी की बातों पर लगा गया चुप!
"किसने जाना कि पिता तुम हो, तुम भी क्या उत्तर दोगे-
पुत्री पर दोष लगाये तो किस-किस का मुँह पकडोगे?"
"उस पर अपवाद धरे कोई भ्रम मे, या दुर्बल क्षण में,
उसकी यह नियति कि डूब मरे जाकर सरयू के जल में!"
आवेश-रोष से पाँव पटकता चला गया था रावण,
माथे पर हाथ धरे मन्दोदरि बैठ गई चिन्तित-मन!
घबराई-सी रही सोचती क्या उपचार करूँ मैं?
परम दुखी सीता के मन को कैसे शान्त करूँ मैं?
"त्रिजटे, जा कर स्नेह-भाव से थोड़ा धीर बँधाओ!
अपने संरक्षण में ले लो, कुछ विश्वास दिलाओ!"