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घटनाएँ बगैर कौतूहल / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जब अचंभित नहीं होंगे हम
और समाप्त हो जाएँगे
दुनिया के तमाम कौतूहल
तब मेरी हथेली पर काँच गड़ाकर तुम पूछोगे
- बताओ यंत्रणा कितनी है पीड़ादायक
और कहूँगा मैं - मौसम आज सुहावना है बहुत
तब शेष कुछ नहीं बचेगा
कहने और सुनने के लिए
जैसे बम के धमाके
किसी अगवे बच्चे का क्रंदन
सुनामी-सी ख़बरें
हम घटनाओं की व्याख्या में
वक़्त जाया नहीं करेंगे
हम ब्रह्मांड की ऊँचाई और
समुद्र की गहराई
मापने की ज़िद छोड़ देंगे
आकर्षण और विकर्षण भी
कौतूहल के दायरे से मुक्त होगा
और होगा हृदय बर्फ़
तीली नदारत
कुंडी के भीतर होंगे
प्रेम और आत्मीय शब्द
अलौकिक कुछ भी नहीं दिखेगा
चाहे परीक्षा-परिणाम जैसा भी हो
घटनाएँ अर्थहीन, उदेश्यहीन आकस्मिक
कौतूहल बनने की लालसा में भटकेंगी
हमारे इर्दगिर्द !