भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घटनाएँ बगैर कौतूहल / अरविन्द श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब अचंभित नहीं होंगे हम
और समाप्त हो जाएँगे
दुनिया के तमाम कौतूहल
तब मेरी हथेली पर काँच गड़ाकर तुम पूछोगे
- बताओ यंत्रणा कितनी है पीड़ादायक
और कहूँगा मैं - मौसम आज सुहावना है बहुत

तब शेष कुछ नहीं बचेगा
कहने और सुनने के लिए
जैसे बम के धमाके
किसी अगवे बच्चे का क्रंदन
सुनामी-सी ख़बरें
हम घटनाओं की व्याख्या में
वक़्त जाया नहीं करेंगे
हम ब्रह्मांड की ऊँचाई और
समुद्र की गहराई
मापने की ज़िद छोड़ देंगे
आकर्षण और विकर्षण भी
कौतूहल के दायरे से मुक्त होगा
और होगा हृदय बर्फ़
तीली नदारत
कुंडी के भीतर होंगे
प्रेम और आत्मीय शब्द
अलौकिक कुछ भी नहीं दिखेगा
चाहे परीक्षा-परिणाम जैसा भी हो

घटनाएँ अर्थहीन, उदेश्यहीन आकस्मिक
कौतूहल बनने की लालसा में भटकेंगी
हमारे इर्दगिर्द !