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घड़ा / कमल जीत चौधरी
Kavita Kosh से
मेरी मिट्टी की दादी
ख़रीदती थी
मिट्टी के आमदन से
मिट्टी के भाव का
मिट्टी का घड़ा
घड़े पर ठनकती थी
दादी की उँगलियाँ — ठन ठन ठन !!!
घड़ा बोलता था —
मैं पक्का हूँ ।
आज पे कमीशनों की दुनिया में
मैं ढो रहा हूँ
ठण्डे ब्राण्डेड घड़े
बीच बाज़ार खड़े
ठनक मेरी उँगलियों में भी है
पर बोलने के लिए
मिट्टी का घड़ा नहीं है !
जीवन के बाहर जाती दादी
घर में बचाकर रखे पुराने
एकमात्र मिट्टी के घड़े को
जीवन के बाहर ले जाना चाहती है
वह जानती है —
आज अन्दर के जीवन
और
जीवन के अन्दर
मिट्टी को मिट्टी का दुश्मन बनाया जा रहा है ।