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घड़े भर पैसे / मोहम्मद साजिद ख़ान
Kavita Kosh से
काश ! कभी परियाँ दे जातीं
हमें घड़े भर पैसे ?
जेब-ख़र्च को दो पाई भी
मिले नहीं मम्मी से ।
सोचो कितना अच्छा होता
जाती मौज मनाई,
खाते बर्फी, पेड़े, लड्डू
चमचम सभी मिठाई ।
जेबें रहतीं गरम हमारी
मुँह में रहती टॉफ़ी,
फ़िर रसगुल्लों की चोरी कर
नहीं माँगते माफ़ी ।
राजा बनते और न रहते
कोई ऐसे-वैसे !
नया-नया फिर बल्ला होता
बॉल सैकड़ों लाते,
कई बॉलें खो जातीं तो भी
आँसू नहीं बहाते ।
जाते पिकनिक, सैर - सपाटा
कुल्लू और मनाली,
नहीं किसी बच्चे की होती
तब तो जेबें ख़ाली ।
सच हो जाते,फिर तो मन के
सपने कैसे-कैसे !