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घर / उमा अर्पिता

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घर…
आखिर किसे कहते हो तुम, घर?
इस चारदीवारी से घिरी
घुड़साल को?
जिसमें कुछ पागल और अपाहिज
बेसाख्ता समय/असमय
चिल्लाते रहते हैं!
क्या मात्र एक रेवड़ के
एकसाथ बँधकर रह जाने से
चारदीवारी घर कहलाने लगती है?

सुबह-शाम
चारदीवारी के एक कोने-से
उठते धुएँ को देखकर ही तुम
इसके घर होने का
प्रमाण पा लेते हो?

जानते हो…
यह घर-- घर नहीं
वक्त गुजारने का एक
असहाय अड्डा है, जहाँ से
उठकर भाग जाना
यहाँ रहने वालों के लिए
नामुमकिन हो गया है, क्योंकि
वे डरते हैं--
इस चारदीवारी के बाहर
लगे काँटों में उलझकर
लहूलुहान हो जाने से!

यह सच है कि…
इस घर में कभी कोई
प्यार की रजनीगंधा नहीं खिली,
कोई अहसास नहीं जन्मा!
फिर भी-- तुम
इसे घर कहते हो?
शायद तुम
स्वयं घर की परिभाषा से अनभिज्ञ हो,
या फिर
इसमें रहने वालों पर
व्यंग्य कर रहे हो...!