भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर / ज्ञानेन्द्रपति
Kavita Kosh से
दीवार में जड़ी
काँच की अलमारी मे
नेत्र-तल पर खड़ी
आनन्द का अयाचित वरदान देती
नटराज-प्रतिमा में नहीं
न भित्ति-कीलित कथकली के मुखौटे में
घर वहाँ नहीं बसता
घर झाँकता है, वहाँ देखो
कूलर-पदतल में
अचीन्हे-से रखे
धूलिधूसर उस अजीबोग़रीब- अजीब ग़रीब चीज़ में
जो दरअस्ल एक लैम्पशेड है
कूड़ेदान में जाने से पहले ठिठका हुआ
एक अथाह कूड़ादान जिसके पेंदे में कोई छेद नहीं
पर जहाँ से
खुलती है दूसरी दुनिया में एक सुरंग
वह दूसरी तरफ़ की दुनिया है
जिसके तट पर कबाड़ियो की उठी हुई हड़ीली बाँहें दिखती हैं
और आगे कुछ नहीं और
बस अनस्तित्व का समुद्र
आकर्षक न होते हुए भी आकर्षक
जिसकी खींचती महाबाँहों में
जाने नहीं देना चाहता है घर
न जाने कितने बल्बों से तपे उस बुझे लैम्पशेड को