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घर / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
चार दीवारें हैं
दीवारों से झरती मिट्टी है
छत है
टपकती हुई
रसोई है
डंका बाजाती भूख़ है
पलंग है
करवटें हैं
मेज़ है
बस से बाहर
ज़रूरतों की फ़ेहरिस्त है
पत्नि है
काले गढ़ों में धँसी आँखें है
शून्य है
बच्चे हैं
सिर झुकाए फ़ीस की माँग है
और कुछ न माँगने की समझ है
बुढ़ापा है बचपने में
खूँटी पर कुर्ता है
जेब का कफ़न ओढ़े
मरा हुआ सिक्का है