घर का अँधेरा / अमरजीत कौंके
मैं घर से चला
तो घर का अँधेरा
मेरे साथ साथ
चल रहा था
मेरी आँखों में सूरज था
उज्जवल भविष्य के
सपने थे
लेकिन मेरे पाँवों में
पीछे छूट चुके
घर की बेड़ियाँ थीं
रिश्तों की आवाज़ें थीं
मेरे शहर की
छूट रही सीमाएँ थीं
मेरे पूर्वजों की आत्माएँ थीं
मैं अपने रास्तों में अटके
काले पवर्तों से जूझा
मैंने मरूस्थली पगडंडियों को फलाँगा
समुद्रों को तैर कर पार किया
हाथों में सूरज को पकड़ा
तितलियों को
सपनों में सजाया
धीरे-धीरे मैंने
अपनी इच्छा का
अपना संसार बसाया
लेकिन अब
जब कभी भी मैं
भूले भटके
अपने शहर जाता हूँ
अपने घर की
चौखट पर पैर टिकाता हूँ
तो उस घर का अँधेरा
मुझसे अजब सवाल करे है
जिनका जवाब देने से
मेरा मन डरे है
मैं जल्दी-जल्दी
माँ की सूख रही हथेलियों पर
चन्द सिक्के टिकाता हूँ
और वापिस
अपने शहर लौट आता हूँ
लेकिन
मेरे पीछे चल पड़ती हैं
कुछ आवाज़ें
जिनसे बचने के लिए
मैं छटपटाता हूँ
दर्द से बिलबिलाता हूँ
अँधेरे के
इस जंगल से
निकलने के लिए
तिलमिलाता हूँ
आँसू बहाता हूँ
मैं घर से चलता हूँ
तो घर का अँधेरा
अब भी
मेरे साथ साथ चलता है ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा