घर की शहतीरों पर लालटेन / अजय कुमार
कई बार
हमारे घर रहने से ज्यादा
छुपने और छुपाने की
जगह बन जाते हैं
अलमारियों में हैंगरों पर
टँगे मिलते हैं दर्द
सुबकियाँ छुपी रहती हैं
बिछी हुई चादरों की
सिलवटों में
बरतनों की आवाजों में गुम
रहती हैं सारी चिल्लाहटें
और आँसू घड़े के पानी में घुले,
बहते रहते हैं
कितने तरल वर्तुलों में
बँटा घूमता है समय
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण
गोल चक्कों की तरह
हर चक्के पर रहती हैं रोती हुई कुछ आँखें सवार
बीच चक्कों के खाली
खाइयों -सी जगह
जिनमें हर लम्हा रहता है
गिर जाने का भय
कितने जंगल कैद हैं
मन के इन कटघरों में
जैसे चिड़ियाघरों में भयभीत बंद जानवर
बस कोई ले जाए
वहाँ से उन्हें
अपने भीतर कहीं छुपाकर
हर पल जैसे
भाग छूटने को आतुर
काश!
ऐसे घरों की शहतीरों
पर लटकी हों
एक मुट्ठी रौशनी लिए
ऐसी लालटेनें
जो रखें इन घरों के
हर अँधेरे कोने को रौशन
जहां कोई खुद छुप
या किसी भी दर्द को
छुपा न सके
और लटकें हों हर अहाते में
ऐसे धूप के तार
जहाँ कपड़ों के साथ
कोई अपने गीले दर्द भी
रोज सुखा सके।