घर लौटने का वक्त / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
मेरी नन्हीं सी बेटी
अभी घड़ी देखना नहीं जानती
मगर वह पहचानने लगी है मेरे आने की घड़ी
शाम होती है
यह व़क्त है मेरा दफ्तर से लौटने का
दिन भर की उलझने कोने में लपेटने का
इस वक्त
मैं रास्तों को तेज़ी से पार करना चाहता हू
इस व़क्त मैं अपनी साँसों को चार करना चाहता हूँ
क्योंकि अक्सर साँसों का भरोसा तो आधा ही होता है
और आदमी का अरमान
उसकी ज़िदगी की कुल लंबाई से कुछ ज़्यादा ही होता है
कभी कभी
लगता है कल पहुँच जाएँगे वहाँ
मगर क्या आज ही हम बच पाएगें यहॉ?
बचने की चाह
आदमियत की है या हैवानियत की
यह अभी पूरी आदम जात में शोध का विषय है,
लेकिन ये सारी बातें अभी सोचने का व़क्त नहीं है
इस वक्त
मैं सोचना नहीं पहुंचना चाहता हूँ
सोचना ज़रूरी नहीं, पहंुचना ज़रूरी है ।
इस ढलती हुई शाम के व़क्त
मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है
इस वक्त मेरी ज़रूरत है किसी को
दिनभर
दुनिया की नज़रों में फालतू समझे जाने के बाद
कुछ देर के लिए ही सही, मगर खुद को ज़रूरी समझे जाने,
और ख़ुद को ज़रूरी महसूस करने का व़क्त है यह ।
इस वक्त
गली में आहट होती है कि
लपक कर आती है मेरी बिटिया घर की गैलरी में
क्योंकि ये मेरे दफ्तर से लौटने का व़क्त है
इस व़क्त उसका ध्यान खेलने में नहीं, गैलरी में होता है
उसके कान मेरी आहट को पहचानते हैं, इसलिए
व़क्त का मतलब ना जानने के बावजूद
मुझे लौटने में ज़रा भी देर हो जाये तो
मुझे व़क्त का मतलब वह समझा देती है
अपनी झंुझलाहट से ।
इस वक्त सफेद परिंदे
आसमान को जिस तरह तेज़ी से पार कर रहे हैं
शाम के गुलाबी हाथ बादल के टुकड़ों को तार तार कर रहे हैं
इस वक्त
इंतज़ार के वो सारे रूमानी मायने
जो सीख़े थे कभी,
इंतज़ार के इस रूहानी मायने को पाकर
लगता है फीके थे सभी
इस वक्त
गौधूली का पौराणिक अर्थ समझा जा सकता है
कहने भर के लिए, बस
यह दफ्तर से मेरे घर लौटने का व़क्त है