भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घरेलू औरत / दीपिका केशरी
Kavita Kosh से
शाम की चाय के साथ
घरेलू औरतें उबालती है अपनी थकान
फिर कितने सलीके खुद को समेट कर
करीने से माहताब की रोशनी में ढ़ल आती है
कि कोई यकायक देखें तो कह उठे
कितनी आफताबी हो तुम,
पर उसका घरेलू आदमी इसके विपरीत ये कहता है
कि तुम दिन भर करती क्या हो !