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घास / इब्बार रब्बी
Kavita Kosh से
यह जो मेरे आसपास करुणा की तरह
उगी है
यह वही हरी घास है
जिसे मौसम नहीं चर रहा है
पैरों से दबकर कैसे तनकर
खड़ी हो जाती है
इसे किसी का लिहाज,
कोई शर्म नहीं है
हरे स्प्रिंग की तरह जहां थी
वहां लौट आती है
इसे ठोकर बदलती नहीं
कोई चोट खलती नहीं ।
रचनाकाल : 1976