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घुमड़न के बाद / अज्ञेय

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घुमड़न के बाद
अब हम फिर साथ हैं।

न जाने कैसे, प्रमादवश, थोड़ा भटक गये थे।
तभी चुपके से ऊपर काले बादल लटक गये थे।
हमारे तारे-स्थिर निष्ठावान्-कुहासे में अटक गये थे।
इतनी तो बात है।

तारे दूर हैं, बादल है चंचल : झट से घेर लेते हैं।
इसी भ्रम में हम इस गहरी सचाई से मुँह फेर लेते हैं।
कि तारे स्पर्श से भरे हैं,
ओझल हों, पर हीरे से वहीं पर धरे हैं,
और वज्र-से अमिट हैं लेखे जो उन्होंने हमारे ह्रत्पट पर उकेरे हैं
(भाग्य के नहीं, प्रत्ययों के, जो मार्ग-संगी तेरे-मेरे हैं)
यों ही हमें लगता है कि बड़ी डरावनी रात है।

मार्ग कभी धुँधला हो, दिक्चक्र थोड़े ही खो जाता है
ज्ञान अधूरा है, सही, विवेक थोड़े ही सो जाता है!
आस्था न काँपे, मानव फिर मिट्टी का भी देवता हो जाता है।
तेरा वरद, मेरा अभयद, यों हमारे साथ है।
अब हम फिर साथ हैं।

1955