घोड़े / महेश आलोक
घोड़े अस्तबल में हैं और दुखी हैं
घोड़े दुखी है क्योंकि उनमे विनोद-वृत्ति नहीं है
घोड़ों में विनोद-वृत्ति नहीं होती
अस्तबल में चार रँग के घोड़े हैं हिनहिनाते हुए
आम तौर पर चार रँग के घोड़े पाये जाते हैं
सफेद और भूरे और काले और चितकबरे
घोड़ों के प्रचलित रँग यही हैं
काले घोड़े कि नाल बहुत फायदेमन्द है
ज्योतिषियों की सुलभ प्रजाति इस तथ्य से असहमत
नहीं है
घोड़े अस्तबल में हैं और दुखी हैं
वे पैरों को थोड़ा पीछे करते हैं
अपनी नाल से पृथ्वी को थोड़ा दबाते हैं हिनहिनाहट में
दुख को पूरे वजन के साथ
लाने के लिये
घोड़ों को खिलखिलाकर हँसते या मुस्कुराते नहीं देखा किसी ने
घोड़ों ने भी नहीं
उनकी गड़ना तेज दौड़ने वाले पशुओं में होती है
इसलिये सिर्फ उनके दाँतों और खुरों में अधिक दर्द होता है
इसका सीधा अर्थ यही है
कि उनमें सोचने की क्षमता नहीं होती
इसलिये कल्पनाशील होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता
अगर किसी प्रथम पुरुष को राज्याभिषेक के बाद
पहले ही दिन घोड़े खींचते हैं
तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये
चूँकि घोड़ों में सोचने की क्षमता नहीं होती
इसीलिये उनमें विनोद-वृत्ति नहीं होती
इसीलिए उनमें पालतू और वफादार जैसे विशेषणों को
खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं होती
शायद इसीलिए धूमिल जैसा कवि कह सका :
घोड़े सिर्फ लोहे का स्वाद जानते हैं
क्योंकि उनके मुँह में लगाम है
और लो कविता की अन्तिम पंक्ति तक आते आते
घोड़े अस्तबल में नहीं हैं
इतना भद्दा मजाक सिर्फ घोड़े ही कर सकते हैं
सचमुच घोड़ों में विनोद-वृत्ति नहीं होती