भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चंद रुबाइयात / अली अख़्तर ‘अख़्तर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी बला को हो, जाती हुई बहार का ग़म।
बहुत लुटाई हैं ऐसी जवानियाँ मैंने॥
मुझीको परदये-हस्ती में दे रहा है फ़रेब।
वो हुस्न जिसको किया जलवा आफ़रीं मैंने॥

मेरी बेख़ुदी है उन आँखों का सदका़।
छलकती है जिन से शराबे-मुहब्बत॥
उलट जायें सब अक़्लो-इरफ़ाँ की बहसें।
उठा दूँ अभी पर नक़ाबे-मुहब्बत॥