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चक्रव्यूह / धनराज शम्भु

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स्वयं को ढ़ूढ़ने की कोशिश में
ऐसे सुरंगों का सुराग मिला
जो आज का चक्रव्यूह है
माँ के गर्भ में रहकर
किसी ने कुछ नहीं सीखा
पैर अपने-आप उठ पड़े
दिमाग में एक नया विचार लिए
दीवारों को पारदर्शी करते हुए
एक अपरिचित राह तक पहुंच जाते हैं
भावनाएँ सांसारिक दायरों से अलग होकर
एक नया रूप लेकर
नये रंगशालाओं से
आधुनिकीकरण के अंदाज़ में
स्वयं को ढाल कर खो जाती हैं
सचेत होने पर फिर लौटने की इच्छा
नाक में दम करती
परन्तु विवशता के हाथ
जाल बनकर रह जाते
और अपने आप को खोया महसूस कर
रीते, प्राणहीन चट्टानों के बीच
आवाज़ ही बुलंद करते जाते
कोई इस राह को न चुने
बंधु, आदमी इस में खो जाता है
यही आधुनिक चक्रव्यूह है