भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चक्रान्त शिला – 5 / अज्ञेय
Kavita Kosh से
एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ
दाह खोती लीन होती हैं।
उसी में रवहीन तेरा गूँजता है
छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है।
एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ
सब पिघल जातीं ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत
पुनीत गहरी नींद की।
उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-गले मिलता है।