चतुर्थ सोपान/ देवाधिदेव / जनार्दन राय
हो रही थी पार्वती की जो परीक्षा,
चल रही थी विष्णु-शिवकी जो समीक्षा।
अद्भुत दृश्य था पावन अमित थी शुभ घड़ी वह,
तर्क का युद्ध था अनुपम बुद्धि की थी कड़ी वह।
प्रस्तावक शिव की निन्दा करने में तनिक न चूके,
विष्णु-प्रशंसा में वाणी के शंख खुशी से फूके।
निष्ठामयी उमाका उत्तर था इतना पुरजोर,
सप्तर्षिकी वाणी उतनी ही पड़ गई कमजोर।
‘महादेव अवगुण’ का घर है विष्णु ‘सकल गुण-धाम’,
जिसके मन को जो भाता है, उससे उसको काम॥
प्रस्तावक थे विष्णु नहीं ली सप्तर्षि ने परीक्षा,
विजय मित्र की ही थी यही विष्णु की इच्छा।
विष्णु - व्यंग आनन्द-वृष्टि अनुपम करते जाते थे,
दुलहा के अनुरूप वहां बारात नहीं पाते थे।
विष्णु कहे थे हँसकर ”सुन ले चतुर सकल दिसिराज,
विलग-विलग हो चलें साथ ले निज-निज शुभ्र समाज,
वर अनुहार बरात नहीं, क्या होगी नहीं हंसाई?
पर पुर जाकर कहो भला इसमें है कहाँ भलाई?
व्यंग बड़ा उत्कृष्ट बना शिव-दर्शन होकर व्यक्त,
शिव सभत्व का विग्रह बन साकार हुए अभिव्यक्त।
शिव द्वारा अतिक्रमित लोक की मर्यादा होती थी,
मिली प्रतिष्ठा भी तत्क्षण निज मर्यादा खोती थी।
अपमान मिला जो जन का वह था सहन नहीं हो पाता,
गरल बीच जो अमृत छिपा वह समझ नहीं था पाता।
साक्षात्कार विष में अमृत का शंकर को ही झलकता,
जन-मन से आचरण भूत-भावन का नहीं छलकता।
पूजा के आकांक्षी शिव थे भूल रहे निज मान,
विष्णु व्यंग-वाणी ने उनको दिया स्वयं का भान।
स्वार्थ सिद्धि हित देव वृन्द
थे शिव-विवाह आकांक्षी।
करने शिव को सन्तुष्ट
होड़ के सभी बने थे कांक्षी।
आतुर थे प्रसन्न करने,
बन चाटुकार थे जागे।
व्याकुल थे निज परिचय देने
जा शंकर के आगे।
स्वामी के प्रति स्नेह देख,
शिव गण आनन्द-विभोर
सुर को शिव सान्निध्य दिलाने
लखते भाव - विभोर॥
विष्णु मात्र अवगत थे
सुर की दुर्बलता से फलतः।
विलग-विलग हो चुले,
कटाक्ष करते उन पर थे स्वान्तः।
भूले नहीं थे कटाक्ष करने,
शिव पर भी मित्र समभकर।
देवों पर दें ध्यान जान
निज गण उनके अन्तर पर॥
होती है दुर्दशा बरात
जाने वालों की प्रतिपल।
आप सुशोभित होंगे
गण के साथ बनाकर निजदल॥
मन ही मन महेश मुस्काते
रहते विष्णु - वचन पर।
व्यंग भरा रहता था,
कितना प्रति क्षण विष्णु-कथन पर।
जन साधारण दूर व्यंग्य से
रहना उचित समझते।
शिव प्रसन्न हो व्यंगावसर
देना ही-ठीक समझते॥
स्तुति और प्रशंसा तो
सब को ही प्रिय लगती है।
विषपायी ांकर को पर
व्यंगोक्ति भली लगती है॥
सुकवि उपाधि विभूषित शंकर
मानस में है चित्रित
उत्कृष्ट काव्य माना जाता
वक्रोक्ति व्यंग से निर्मित।
काव्य रसिक शंकर प्रसन्न थे,
विष्णु काव्य रस पीकर।
क्या होगा जग में केवल
रस हीन जिन्दगी जीकर॥
थे संकोच गरे सुन सुरगण,
विष्णु-व्यंग वाणी को।
होता महा अशोभन यदि
चलते वे तजकर शिव को॥
निकट बुलाया शिव ने तत्क्षण
अपने ही प्रिय गण को।
हास्य, व्यंग, वक्रोक्ति समेटे
कर आनन्दित मन को॥
सृष्टि लग रही मूर्तिमयी
कविता सी उनके मन को।
वीभत्स रौद्र रस भी रस में
मिल खुशियाँ देती जनको॥
जीवन में वीभत्स-व्यंग
रस की अनुभूति न देते।
शंकर विरोधाभास हीन
बन इनको अपना लेते॥
उनके विग्रह और वचन में
रस जब हैं सरसाते।
जीवन-काव्य जगत में फलतः
वे सब रस वरषाते॥