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चन्दन के गंध / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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चन्दन के गंध
बसाईं मन में
कहीं रहीं-
घर में चाहे वन में।
काटीं बिरवा बीख के
पनके ना
आग कहीं
अनचितले धनके ना
भूलीं मत
अपना अभिनन्दन के !
कर्म पथ पर
आगे बढ़त रहीं
आपन इतिहास
रोज गढ़त रहीं
उलझीं मत
व्यर्थ चरन-वन्दन में।
काल शकुनी
फेंक रहल पासा
छाँव पर चढ़ल
सभकर आसा
स्वार्थ समाइल बाटे
कन-कन में।
धीरज के डोर
कहीं छूटे ना
प्रेम के कलश
कबहीं फूटे ना
दिल के सम्बन्ध
बँधक छन्दन में !