भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चमन में सुबह ये कहती थी / ख़्वाजा मीर दर्द

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चमन में सुबह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ तो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम

अर्क़ की बूंद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़सार पर टपकी
ताज्जुब की है जागे ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम

हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र अया
इधर गुल फारते थे जेब, रोती थी उधर शबनम

करे है कुछ न कुछ तासीर सोहबत साफ़ ताबों की
हुई आतिश से गुल के बैठते रश्क़-ए-शरर शबनम

भला तुक सुबह होने दो इसे भी देख लेवेंगे
किसी आशिक़ के रोने से नहीं रखती ख़बर शबनम

नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबक सारों के उठने को
गई उड़ देखते अपने बग़ैर अज़ बाल-ओ-पर शबनम

न पाया जो गया इस बाग़ से हर्गिज़ सुराग़ उसका
न पलटी फिर सबा इधर, न फिर आई नज़र शबनम

न समझा "दर्द" हमने भेद याँ की शादी-ओ-ग़म का
सहर खन्दान है क्यों रोती है किस को याक कर शबनम