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चम्पा / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
अक्षर-अक्षर को तरसा है
पंक्ति-पंक्ति को प्यासा मन
शब्दों को खोने की व्यथा
जानी जाती है खोकर ही-
संसृति पर बरप जाता
एक विराट सूनापन
आँखों की पुतली तक
काजल से सन जाती
मर्म नहीं सुन पाता अपनी कथनी
पीड़ा का हर पल भी आता है गूँगा ही
जो अनायास, शब्दों की
चम्पा-चैती, खिल आई तुम,
खिलती रहना सावन में आने तक
सावन में शायद
केसर-पुष्पी, हरसिंगार
मेरी झोली झर जाए
फिर शीत ऋतु के आते-आते
खिल ही जाएँगे गुलाब
यों,
हर एक दिन
हर एक पल
हर शब्द-फूल
कविता हो,
कविता हो।