भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चल कहीं पर, दूर बस लें / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल कहीं पर, दूर बस लें,
आज फिर, जी खोल हँस लें!

लोग अब हैं सभ्य ज्यादा
इस जगह हँसना मना है,
भाव पर प्रतिबन्ध ऐसा
यह तो बिल्कुल यातना है;
यूँ न बोलो, यूँ न बैठो,
यूँ न गाओµवर्जनाएं,
क्यों न ऐसे देश से हम
मीत बोलो भाग जाएं;
किस तरह से हो सकेगा
उँगलियों से ग्रीव कस लें !

मुक्त हो मन, मुक्त मानव,
मुक्त; जैसा, यह गगन है,
गिर रही; ज्यों, मुक्त रजनी,
भोर का उठता पवन है,
वर्जना हो वर्जना-सी
मन जिसे स्वीकार कर ले,
रीति क्या वह, नीति क्या वह
प्राण जिनसे रार कर ले !
हैं यहाँ बिखरे बहुत कुछ
तिक्त में से चुन, सरस लें।