भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलती है लू / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर, मैदान, खेत तप जाते
जब चलती है लू,
बागों में से उड जाती है
फूलों की खुशबू।

पर न सोचना, तपन भरी लू
यों हो डोल रही,
चुपके-चुपके खरबूजों में
मिसरी घोल रही।

कड़ी धूप यह तरबूज़ों में
शर्बत भर जाता,
आँखों में भी तो मीठा रस
तपकर ही आता।

जो लू- लपट सहन कर लेते
जीवन-रस पाते,
जो छाया में गए बैठ, बस
बैठे रह जाते।