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चलना चाहती है मेरी कलम / सौरभ
Kavita Kosh से
एक
जब हवा चलती है
तो पेड़ नृत्य करते हैं
जब होती है वर्षा
तो नाचते हैं मोर
लहलहाते हैं खेत
मुस्कुराते हैं जँगल
जब बिजली चमकती है रात को
तब रात मुस्कराती है
हर पल हर क्षण
स्पँदित होती है कायनात
जब सारी पृथ्वी आल्हादित है
तब मनुष्य
जो सँपूर्ण
क्यों है विचलित
किस उधेड़बुन में है वह लगा हुआ
क्या मनुष्य सम्पूर्ण है!
दो
क्या लिखूँ मैं आज
चलना चाहती है मेरी कलम
समेटना चाहती है सारे सँसार को
विचारों को
भावनाओं को
पर आज कुछ भी नहीं मेरे पास
न भावना न सँसार न विचार।