चलें यहाँ से दूर / संतोष कुमार सिंह
ले चल प्रियतम अब हमको भी, दूर कहीं अति दूर।
ये नदिया बन कर आई है, क्रूर अधिक ही क्रूर।।
धीरे-धीरे अँधियारे में, यह घर में घुस आई।
डूबे गेहूँ, बर्तन, खटिया, चद्दर, खोर, रजाई।।
प्राण बचाने कब तक छत पर, बैठेंगे मज़बूर।
मील सैकड़ों दीख रहा है, प्रियतम जल ही जल है।
ये तो बाढ़ नहीं लगती है, लगती क्रूर-प्रलय है।।
चुन्नू - मुन्नू बैठे इस छत, उस छत अल्लानूर।
इस घर में ही मैंने छेड़े, निश-दिन हुलस तराने।
जीवन भर हमने-तुमने भी, गाए मंगल गाने।।
प्राण बचें तो लाखों पाएँ भागो अभी हुज़ूर।
बाहर पानी, भीतर पानी, ऊपर बादल बरसे।
भैंस खड़ी पानी में बाहर, चारे को भी तरसे।।
इस पानी से हार गए हैं, बड़े-बड़े सब शूर।
डूब गई सब फसल हमारी, अब कैसे उबरेंगे ?
जान बचे तो किसी शहर में, मज़दूरी कर लेंगे।।
सुधि लेने सरकार हमारी, पहुँचे यहाँ ज़रूर।