भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलो / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
चलो हम
बंजर हुई ज़मीन में
कोई नया बीज डालते हैं
चलो बेवक़्त सूख गई नदी में
छिपे हुए सोते का
मुहाना खोलते हैं
चलो पतझड़ के मौसम में
ज़िद करके
एक नया पौधा रोपते हैं
चलो कनकनी हो गई हवा में
एक नई खुशबू बिखेरते हैं
चलो मद्धिम होते सूर्य को
अपनी-अपनी ऊष्मा से
दिपदिपाते हैं
चलो वक़्त की रगों में
नया ख़ून भरते हैं
चलो साँसों में कोई नई सरगम उतारते हैं
चलो
हम संबंधों का एक नया शास्त्र रचते हैं।