भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलो अब लौट आती हूँ / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाँ, अब जब नहीं हूँ
तुम्हारे पास
तब भी कुछ बातें
तुम्हें मेरी याद दिलाती होगी ना
जैसे तुम्हारी अलगनी पर टँगी
मेरी खुशियों की चाभी,
तुम्हारी जेब में जो सहेज कर
रखी थी मैंने कभी
अपने सपनों की पर्ची,
अपने ओठों की हँसी
जो मैंने तुम्हारी बालकनी में सूखने छोड़ आई थी,
हाँ, तुम्हारे किचन के ही किसी
डब्बे में बन्द पड़े होंगे
मेरी हसरतों के गर्म मसाले,
आते वक्त आंटे सँग गूथ छोड़
आई थी अपनी अनगिनत माधुर्यपूर्ण यादें

कि अब जब मैं नहीं हूँ वहाँ
तो पूजा कि थाली में
सूख रहे होंगे हमारे सम्बन्धों के पवित्र फूल
और दरवाजे पर
मेरी आलता लगे पावों की निशानियाँ अपनी याद
दिलाती होगी
कभी सीढ़ी के तीसरे पायदान से गिरा मेरे बिछुआ आज भी वहीं कहीं खनक रहा होगा ना जहाँ अकसर पीछे से मुझे
डरा देते थे तुम
फिर डर से निकली मेरी आवाज भी तो तुम्हारे मन की किवाड़ पर दस्तक देती होगी ना
कुछ खुली कुछ अधखुली सी, कच्ची नींद
से भरी तुम्हारी पुतलियों पर
मेरे गीले बालों से गिरे पानी की बूंदे भी तो शायद अब आँखों में समा चुकी होगी ना

कि हाँ, अब सोचती हूँ
लौट भी आऊँ
कि इस बार की सर्दी में बर्फ न बन जाये हमारे रिश्ते की
गुनगुनी सी गर्माहट॥