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चाँद और खच्चर / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
चरते हैं किसी जुते हुए चारागाह पर
अँधेरा समझ कर घास प्राणिमात्र...
मैं रात्रि में घुलता हुआ माटी का एक ढेला हूँ
गन्दलाता हर कुछ को अपने आस पास । लेकिन फिर स्वच्छ हो जाती है
मेरी दृष्टि देख कर एक उज्ज्वल
चाँद और मुग्ध होता हुआ खच्चर
अपनी ही परछाईं पर....
पानी पर चाँदनी से रोया हुआ अक्षर
मछली की लहर भर लक़ीर बन कर
तैरता है मेरे गलते हुए ढेले से
गन्दलाए आसमान में... समय ऐसा है
और घास समझ कर अपनी परछाई को
खच्चर चाँदनी चर रहा है
मेरी माटी जा कर बसती है रात्रि के तल में
मछलियों की मचलती लहर को पकड़ता है
प्रत्यक्ष अवकाश का फन्दा
चाँद समझकर मैंने देख लिया
उस चाँदनी को जिसे वह मुग्ध खच्चर चर रहा था ।