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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में / हरिवंशराय बच्चन

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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।

दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
कल्‍पना करने लगी अब राह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।

भूमि के उर तप्‍त करता चंद्र शीतल
व्‍योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।

कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्‍या समा है!
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।

चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।