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चादर / सुकुमार चौधुरी / मीता दास
Kavita Kosh से
गीली मिटटी की गन्ध से मेरी नीद उड़ जाती है।
पानी इस तरह चूता है हमारी टूटी छत से
जैसे चलनी से छन रहा हो पानी।
सीलन भरे फ़र्श के एक कोने में
हम माँ की गोद में दुबके चुपचाप बैठे रहते।
मूसलाधार वर्षा होती
हर दूसरे दिन।
ठण्डी बयार छू
जाती हमें
हमारी छाती को।
माँ कहानियाँ सुनाती
पीछे छूट गए उन सुनहरे दिनों की।
हम भी अवाक् हो सुनते,
ताकते थोड़ा
गर्वित माँ के मुँह की ओर।
कभी अनजाने में
माँ की कहानियाँ
बन जातीं
हमारे बदन के लिए गर्म चादर।
मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास