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चार / डायरी के जन्मदिन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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देखकर फिर ग़ैर को
अपने लिए कुछ जगा,
जैसे प्यार कोई ठूँठ......
जो आदि से चल अन्त तक आया नहीं;
मन बधा चुप्पी से, रहेगा लौटता...!

कल्पना के
शिखर से उतरी अपर धारा,
त्वरा से दौड़ती
कोई स्वचालित उ...ष्मा...
देखता हूं,- पथ नहीं
गन्तव्य का सहचर,
न होगा अस्तु
कोई अनलिखा आदेश;
छन्द है हिमसार-शीतल बन्ध,
वस्तु-व्यापी कौन हो?

अग्रिम क्षमा की नियति क्या?
मेरी सुकैशी हँस रही,-
नयनाभिराम प्रगामिनी...
नि शेष द्रुत संगीत कोई- मूक,
रेखांकन नहीं होगा – प्रवर्त्तन का,
जिजीविष के लिए निरपेक्ष ही,
विश्रब्ध ही,
जीना-जिलाना
मार्ग;
यही है सृष्टि,......बड़ी महार्घ!

[१९६३]